Thursday 27 December 2012

माण्डुक्य उपनिषद 

3. प्रथम चरण स्थूल वैश्वानर ( प्रकट विश्व का संचालक ) है। जो जागृत स्थान में रहने वाला , बहिष्प्रग्य ( बाहर बोध करने वाला ) तथा सात अंगों ( सप्त लोकों ) और उन्नीस मुखों ( दस इन्द्रियां, पांच प्राण, अंतःकरण चतुष्टय ) वाला तथा स्थूल का भोक्ता है।

4. स्वप्न के सदृश अव्यक्त विश्व जिसका अधिष्ठान ( आश्रय ) है, जिसके द्वारा अदृश्य लोकों का ज्ञान अन्तःचक्षु से होता है। जो सूक्ष्म विषयों ( वासना ) का भोक्ता है और ज्योतिर्मय है, वही तेजस ब्रह्म का द्वितीय चरण है।

5. जिस अवास्था में प्रसुप्त मनुष्य किसी भोग की कामना नहीं करता और न ही स्वप्न देखता है। ऐसी सुषुप्तावस्था में जो एकाग्र वृति वाला प्रकृष्ट ज्ञान स्वरुप है और आनंद रूप ही है। एवं जो एकमात्र आनंद का ही भोक्ता है जिसका मुख तेजोमय चैतन्य रूप है, वह प्राग्य ही ब्रह्म का तीसरा चरण है।

6. वह ब्रह्म ही सबका इश्वर है, वह सर्वग्य अन्तर्यामी और सम्पूर्ण जगत का कारण भूत है। वही सब भूतों की उत्पत्ति , स्थिति और विनाश का कारण है।

7. जो अन्तः अथवा बाह्य प्रज्ञा वाला नहीं है, जो प्रकृष्ट ज्ञान्पुन्ज नहीं है, न ज्ञानरूप है, न अज्ञान ही है। जो ज्ञानेन्द्रियगम्य नहीं है, जो कामेद्रियगम्य भी नहीं है, जो क्रिया रहित है, जो प्रतीकों से भिन्न है, जो चिंतन की सीमा से परे और कथन की सीमा से भी परे हैं। जो एकमात्र अनुभवगम्य है, जो सम्पूर्ण प्रपंचों का लय  स्थान है, जो शांत स्वरुप कल्याण स्वरुप और अद्वैत रूप है, वही ब्रह्म का चतुर्थ चरण है, वही आत्मा है, वही जानने योग्य है।

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